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Tuesday, 30 August 2011

MAG - TOP EDITIONS, TOP TEAMS

आओ पढाएं, सबको पढाएं मुहिम के पहले चरण में बेहतर काम करने वाले साथियों का काम आपसे शेयर होता रहा है. ब्लॉग पर शहर के नाम के लेबल पर क्लिक कर आप उनके बारे में पढ सकते हैं. बच्चों के नामांकन का आंकड़ा 7000 के पार पहुच गया है...

मीडिया एक्शन ग्रुप फेसबुक के ज़रिये भी अभियान शेयर कर रहा है. हम ट्विटर पर भी जुड़ गए हैं.

अगले चरण में हम सरकारी स्कूलों को फोकस कर रहे हैं. इसमें भी ख़बरों के अभियान के साथ लोगों के ज़मीनी जुडाव, असल बदलाव, मापने योग्य पैमानों, नीतिगत दखल और नवाचार पर जोर रहेगा. अभियान की पूरी कार्ययोजना सबको पंहुचायी गयी है, सितम्बर से काम का आगाज़ होगा.

अभी तक :

डूंगरपुर के दीपक शर्मा व मिलन शर्मा ने काम  को बखूबी अंजाम दिया, खूब दाखिले करवाए, भामाशाहों से मदद करवाई, और आगे की पहल की पूरी तैयारी कर रखी है, यहाँ नामांकन खूब हुए और लोगों का सहयोग भी खूब अर्जित किया

कोटा के प्रमोद मेवाडा, बूंदी के नागेश, और झालावाड के शादाब अहमद ने खबरें और नवाचार दोनों किये, खूब नामांकन करवाए  और ऐसे इलाकों में पंहुच बने जहां सरकार की भी नज़र नहीं थी

 करौली  में सुनील जैन व टीम के दिनेश चंद शर्मा ने लगातार अभियान में ऊर्जा का संचार किया, नवाचार किये, भामाशाहों के साथ साथ प्रशासन को भी जोड़े रखा , खूब नामांकन करवाए और लोगों को जोड़े रखा

 भीलवाडा के भुवनेश पंड्या ने ख़बरों के साथ स्टे होम के लिए कवायद की और अच्छे परिणाम दिए

इंदौर की नुपुर दीक्षित ने ख़बरों के ज़रिये मुद्दे के लिए अलख जगाये रखी है, मैग की पंखुरी ने ज़मीनी काम कर अभियान में कंधे से कन्धा मिलाया है, नामाकन के मामले में मध्य प्रदेश में केवल इंदौर में ही काम हुआ

डूंगरपुर और करौली  नवाचार व ऊर्जा के लिहाज़ से लगातार आगे हैं. कोटा संस्करण ने नवाचार और ख़बरों के लिहाज़ से बेहतरीन काम किया है.

उदयपुर कौशल मूंदड़ा  ने स्कूलों को जोड़ने और नामांकन के लिए बहुत काम किया, खबरें लगातार लगीं

बीकानेर में नामांकन अभियान में पत्रिका के साथ बहुत जुडाव हुआ, खबरें भी लगातार खरी खरी लगीं.

दौसा में अजय शर्मा और टोंक में सुभाष राज की टीम ने सीटीएस की पोल खोल के साथ नामांकन का काम अच्छा किया 

बांसवाडा के वरुण भट्ट, सवाई माधोपुर में धैर्य कुमार की टीम, कुचामन सिटी के केआर मुन्दियार, जालोर के अल्लाह्बक्ष, भरतपुर में राजेश खंडेलवाल, ब्यावर में दिलीप शर्मा, किशनगढ़ में सुनील कुमार सहित और साथियों ने  बेहतरीन काम किया है. इन सभी स्थानों पर नामांकन का आंकड़ा अच्छा रहा.

जबलपुर  में प्रेम शंकर तिवारी लगातार पत्रिका कनेक्ट की हर कार्ययोजना को बेहतर अंजाम दे रहे हैं. ज़मीनी काम के लिहाज से उनका काम बेहतरीन है.

भोपाल में ख़बरों के लिहाज़ अच्छा काम होने लगा है, रायपुर में राजेश नैन की निगरानी में सरिता दुबे ने पत्रिका कनेक्ट का काम संभाला है और वहां वार्ड की ख़बरों को लेकर जागो रे नाम का विशिष्ट पृष्ठ प्रकाशित हो रहा है. शिक्षा अभियान भी अच्छा चला, आंकड़ा आना बाकी है

ग्वालियर में पत्रिका कनेक्ट का काम जोर पकड़ रहा है. अभियानों पर भी बेहतर काम हुआ है, भ्रष्टाचार की मुहिम वाकई प्रशंसनीय है.

जोधपुर में शुरू में मधु के हाथ कमान थी, पर अपडेट आनी बाकी है


अभियान के तहत हमने अभी तक 7000 से ज्यादा बच्चों का दाखिला करवाया है, जिसका पूरा लेखा जोखा हमारे पास है. पिछले काम पर निगरानी भी रखी जा रही है और बच्चों की ज़रूरतों के लिए लोगों को जोड़ने का काम भी चल रहा है.

सहयोग के लिए आभार. आगामी योजना के बारे में सभी जानकारी देते रहे.
सादर
क्षिप्रा माथुर

Monday, 1 August 2011

Hold one finger, help them write their future...

http://epaper.patrika.com/9003/Rajasthan-Patrika-Jaipur/01-08-2011#p=page:n=9:z=1
वर्ष 2002 में संविधान में 86वां संशोधन कर अनुच्छेद 21 अ जोड़ा गया और शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार बन गया। कानून लागू हुआ पिछले साल और अभी तक सरकार उन बच्चों की पहचान तक नहीं कर पाई है जिन्हें ये हक मिलना है। प्रारम्भिक शिक्षा की प्राथमिकता ही तय नहीं। न हक की गारण्टी, न सुविधाओं की, न गुणवत्ता की।
हर एक थामे नन्ही उंगली
मुफ्त व अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा कानून लागू होने के बाद भी न इसके क्रियान्वयन को लेकर सरकार के पास न कोई कार्ययोजना है न संजीदगी। राजस्थान पत्रिका ने राजस्थान, मध्यप्र्रदेश और छत्तीसगढ़ तीनों राज्यों में चलाए आओ पढ़ाएं, सबको बढ़ाएं अभियान के तहत गरीब बच्चों को नज़दीकी निजी स्कूलों की 25 फीसदी सीटों पर मुफ्त प्रवेश की मुहिम शुरू की। प्रदेश में इस प्रावधान को लेकर न तो निजी स्कूलों के पास कोई निर्देश पहुंचे, न ही फीस भुनर्भरण का कोई फार्मूला अभी तक तैयार हुआ। जागरूकता के अभाव में असल वंचित बच्चों ने प्रवेश के लिए आवेदन ही नहीं किया तो स्कूलों की मिली भगत से सक्षम परिवारों ने ये आरक्षित सीटें हथिया लीं। राजस्थान सरकार ने तो 20 हजार मासिक आय वाले परिवारों को गरीब और वंचित की परिभाषा में शामिल कर असल हकदारों को फिर हाशिए पर धकेल दिया है।

हमारी पहल पर हजारों बच्चों को निजी स्कूलों ने प्रवेश मिल गया, जिनका पूरा लेखा जोखा हमारे पास है और भामाशाहों ने उनकी किताबों, बस्तों, यूनीफॉर्म आदि की जिम्मेदारी भी उठा ली लेकिन अब बड़ी चुनौती ये है कि ये गरीब बच्चे आलीशान स्कूलों के माहौल और पढ़ाई से सामंजस्य कैसे बिठाएं और आए दिन होने वाले खर्चों का बोझ कैसे सहें। कई स्कूल इन बच्चों को हर संभव मदद कर रहे हैं तो कुछ ऐसी परिस्थितियां पैदा कर रहे हैं कि अभिभावक तंग आकर खुद ही दाखिला निरस्त करवा लें। राजधानी के निजी स्कूल इन सीटों पर प्रवेश की कोई जानकारी नहीं दे रहे जबकि कानून साफ कहता है कि आरक्षित सीटों की प्रवेश प्रक्रिया की जानकारी आम जन के लिए उपलब्ध रहेगी और सीटों की स्थिति उन्हें सार्वजनिक करनी होगी। पूछने पर सभी कह रहे हैं कि हमने 25 फीसदी गरीबों को दाखिला दिया है। राजस्थान सरकार 25 फीसदी आरक्षित सीटों पर की गई भर्ती की रिपोर्ट भी इकट्ठा कर रही है, अब नज़र ये रखनी है कि कागज़ों में किन किनको गरीब बताकर कानून का मखौल उड़ाया जाता है। अभियान के तहत हमने सरकार की चाइल्ड ट्रेकिंग सर्वे और नामांकन अभियान की भी पोल खोली और सरकारी स्कूलों में भी अभियान के जरिए बच्चों को दाखिले करवाए। मीडिया एक्शन ग्रुप के बैनल तले चले इस अभियान में समाज के लिए प्रतिबद्ध लोगों, नागरिक समूहों, प्रशासन, जनप्रतिनिधियों, अध्यापकों आदि को भी जोड़ा, गरीब बस्तियों में जाकर समझाइश की और निजी स्कूलों से निवेदन। दूर दराज के गांवों में जाकर अधिकार के बारे में जागरूक किया और नामांकन करवाया। सरकारी स्कूलों में भी दाखिले करवाए। मालूम हुआ सरकार के हिसाब से जितने बच्चे स्कूल से बाहर हैं उससे ज्यादा हमने उस गांव में प्रवेश करवा दिए। हाशिए के लोगों को जोडऩे के लिए रात्रि चौपाल, चलो स्कूल और शिक्षा पंचायत  जैसे कई प्रयोग किए। अभियान के तहत उजागर खामियों, गरीब बच्चों को मिली मदद और नवाचारों की सारी जानकारी इस ब्लॉग पर पढ़ी जा सकती है।

हर नागरिक एक बच्चे की जिम्मेदारी उठा ले तो हालात जल्द बदलेंगे। उन्हें अच्छी शिक्षा का हक दिलाने के लिए चाहे निजी स्कूल में या सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाएं और हमें सूचित भी करें, ताकि जन पहल का आंकड़ा भी हमारे पास रहे।

 केन्द्र का पक्ष- निजी स्कूलों में 25  फीसदी सीट वंचित वर्ग के लिए आरक्षित रखने के मसले पर पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट में अटार्नी जनरल जीई वहनवती ने निजी स्कूलों की आपत्ति खारिज की। तीन जजों की बेन्च के सामने उन्होंने कहा स्कूल चलाने के अधिकार से कहीं ज्यादा अहमियत बच्चों के अधिकार की है। अलग अलग सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक पृष्ठभूमि के बच्चों का एक ही कक्षा में साथ बैठकर संवाद करना उनके सीखने की प्रक्रिया का अहम हिस्सा है।


क्षिप्रा  माथुर 
post about your initiatives to educate poor on this Blog 
www.mediaactiongrouppatrika.blogspot.com

Wednesday, 20 July 2011

Lot many issues unresolved...Free Education still a burden on parents???

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये....
प्रदेश में दूर दराज़ फैली पत्रिका की टीम ने जितने भी बच्चों को स्कूल की चौखट पर पंहुचाया है, उनके माता पिता दुआएं दे रहे हैं. अब ज़िम्मेदारी ये भी रहेगी कि  इनकी पढ़ाई लिखाई में रोड़े न आयें. गरीबी और मजदूर से बेदम हुए बच्चों को स्कूलों से लगाव रहे, पढ़ लिख कर वे अपने पैरों पर शान से खड़े हों....कुछ दर्द हैं जो रह रहकर उभर रहे हैं. 
दाखिल तो हो गए, अब बाकी का खर्च??
अभी दिल भारी है इस सोच से कि दाखिले तो हमने दिला दिए लेकिन स्कूल क़ी यूनीफोर्म, किताब, परिवहन और आये दिन होने वाले खर्च को ये परिवार कैसे वहन  करेंगे, कई जगह से खबर मिली कि अभिभावक लोन लेकर ये सब व्यवस्था कर रहे हैं...शर्मनाक है, मुफ्त शिक्षा का मतलब मुफ्त होना चाहिए.. कि गरीब का एक भी पैसा न लगे, ऐसे भी मामले सामने आये हैं कि अभिभावकों ने निजी स्कूलों कि आबोहवा और वहां उनसे हो रहे बर्ताव से आजिज़ आकर स्कूल छुडवा दिया....हमें भी इस पर नज़र रखनी है..फिलहाल तो समाज को थामना होगा हाथ, साथ साथ बात उठानी होगी common school क़ी,....
ये राह नहीं आसान, इतना तो समझ लीजे.. 
लड़ाई असल हकदारों तक फायदा पंहुचने क़ी भी है, मालूम हुआ कि 25 % वाली मुफ्त सीटों पर भी संपन्न तबको ने कब्ज़ा कर गरीबों का हक मार लिया...लानत है. हमारे साथियों ने कलाई खोली, बहुत अभी दुबके हैं, जल्द ही सामने आएगी सबकी असलियत. दुःख ये है कि असल हक़दार अनजान है, भोला भी, थोडा बेफिक्र भी और असंगठित भी. अब ऐसे में सरकारों ने २० हज़ार रूपए मासिक कमाने वाले को गरीब मान लिया हो तो हक तो मारा ही जाएगा वो भी पूरे हक के साथ....काश कपिल सिब्बल साहब सुन लें....राज्य सरकारें कैसी मनमानी कर रही है.
बढे चलें ....
कानून लाना और शोर गुल मचाना सबसे आसान है, लेकिन उसे लागू करना, मंशा ज़ाहिर करना और व्यवस्था कायम करना दूरंदेशी है. अभियान के ज़रिये हमने कानून की खामियों पर कम, मौजूदा प्रावधानों को अमल में लाने पर ज्यादा ध्यान दिया है....अभी मंजिल दूर है...गरीब बच्चों को मनपसंद और नजदीकी स्कूल में दाखिला मिले, उसकी पढाई लिखाई का बोझ परिवार पर न हो, परिवारवालों को अपने बच्चे की पढ़ाई की फ़िक्र हो, समाज का संपन्न तबका मदद को हाथ बढ़ाये, सरकारी अमला शर्मिंदगी महसूस करे और जुड़ना चाहे तो हमसे जुड़े, निर्वाचित प्रतिनिधि अपने निर्वाचन क्षेत्र विकास का पैसा बच्चों को शिक्षा दान के तौर पर भी खर्च करें...सामाजिक संगठन अपने संसाधनों का लाभ मुहिम को भी दें, नवाचार के ज़रिये लोगों का मुद्दे के प्रति उत्साह बना रहे...इलाकों के भामाशाह सहयोग के लिए सीधे वंचित वर्ग के संपर्क में आयें... अपने बच्चों क़ी अच्छी पढ़ाई क़ी चाहत मन में दबी न रहे...
अभी और जिलों से रपट आनी शुरू होगी और अभियान और गति पकड़ेगा.......
शहर का एक नागरिक एक बच्चे की उंगली थाम ले तो बच्चों के हाथ में आई कलम मददगारों के लिए दुआओं की और समाज के लिए  बुलंदियों की ताबीर लिखेंगी.

कल  से अजमेर, किशनगढ़, ब्यावर, चित्तौरगढ़, प्रतापगढ़, हनुमानगढ़, सूरतगढ़, सीकर, जालौर, झुंझुनू, भोपाल, उदयपुर, राजसमन्द ...से मुहिम की अपडेट शुरू हो जाएगी...
भोपाल, इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर के ब्यूरो से भी जल्द ही इनपुट मिलेगा...

 
क्षिप्रा माथुर
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Tuesday, 12 July 2011

गरीब और वंचित बच्चों को मिली अच्छी शिक्षा, अच्छे स्कूल, और असल मदद संचार के नवाचार, लोगो का जुडाव, और टीम में मनोबल

निजी स्कूलों के साथ ही सरकारी में भी दाखिले के प्रयास शुरू
सवाल : गरीब और वंचित कौन??
 25 अप्रेल को निजी स्कूलों में 25 % सीट्स पर गरीब बच्चों के दाखिले क़ी मुहिम शुरू क़ी थी. उससे पहले हमने इस मुद्दे पर काम करने वाली संस्थाओं से चर्चा की, लेकिन लगा कि बस बातें हैं, हमने व्यवस्थित तरीके से बच्चों क़ी पहचान क़ी, उनके दाखिले के लिए स्कूलों के पास गए, उनकी समझाइश क़ी, सामाजिक संगठनों को जोड़ा, हेल्प लाइन चलाई, लोगों को जोड़ा, अधिकार के बारे में जागरूकता लाये, गाँव को गोद लिया, संचार और लोगों के जुड़ाव के पारंपरिक तरीके अपनाये, पत्रिका कनेक्ट के ज़रिये साथ साथ खड़ी हुई जनता क़ी टीम इस पुण्य काम में हमारे साथ कंधे से कन्धा मिलकर साथ चली....3 राज्यों के करीब सभी जिलों में ये अभियान चला, चल रहा है....हजारों का कारवां है, आंकड़ों में भी ज़बरदस्त तेज़ी है हमारी सीढ़ी दखल से अब तक करीब 1000 बच्चे स्कूल पहुच चुके हैं, आधिकारिक आंकड़ों में 50,000 से ज्यादा बच्चे स्कूल जाने क़ी ख़ुशी महसूस कर रहे हैं,यहाँ इस प्रावधान को लागू करने में पत्रिका - मैग के इस संपादकीय अभियान का दबाव और जनजागरूकता दोनों का योगदान रहा. ....हमारे ज़रिये चिह्नित किये गए बच्चों की सूची सरकारी नुमाइंदों से शेयर क़ी है, और भामाशाहों से भी....बच्चों को बस्ता, वर्दी का उपहार देने बहुत लोग आगे आये हैं, कुछ ने बच्चों को पढाई के लिए गोद लिया है....अब इलाके के जनप्रतिनिधि और सरकारी अमला भी साथ आने को आतुर है....
जो काम हम मीडिया और अपने संवाददाताओं के ज़रिये कर सकते है वो तमाम सरकारी - गैर सरकारी संस्थाएं अंजाम नहीं दे सकती. वे सिर्फ पैसा बहाना जानती हैं, हम सिर्फ जनता, बेहतर मंशा और अखबार के बूते जो किया वो मन को बहुत सुकून दे रहा है,  और अखबार को ताकत. हमारी टीम के लिए काम करने का नया रास्ता तैयार कर रहा है.
जो प्रतिक्रिया पाठकों क़ी, प्रदेश के भामाशाहों क़ी, स्थानीय पार्षदों, विधायकों और सांसदों क़ी, जिला प्रशासन और शिक्षा विभाग क़ी मिल रही है...अभूतपूर्व है, सामाजिक संगठनों ने भी आगे बढ़कर सहयोग किया है.
हमें समझना है की गरीब और वंचित कौन??  राजस्थान में 20 ,000 की मासिक आय वाले परिवारों को गरीब मान लिया गया है, चाहें तो सरकारी शिक्षा विभाग की site पर notification देख लें, यानी असल गरीब फिर वंचित ही रहेगा?? आगे इस अभियान में इस पर भी बात होगी...
संवाददाताओं में - करौली के सुनील, डूंगरपुर के मिलन, भीलवारा के भुवनेश, इंदौर क़ी नुपुर, जोधपुर क़ी मधु और कोटा क़ी टीम सभी बेहद उत्साह से काम कर रहे हैं. सबको बधाई, सबका आभार.



क्षिप्रा

Sunday, 29 May 2011

Education Campaign - bhilwara, doongarpur and Indore did so well

भुवनेश, नुपुर, मिलन और पंखुरी ने अभियान को दिया बेहतर अंजाम
भुवनेश ने भीलवाडा में गरीब बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाने, लोगों को जोड़ने और बच्चों के लिए समाज के लोगों से आर्थिक मदद हासिल करने में पूरी शिद्दत से काम किया है.
डूंगरपुर के मिलन ने अद्भुत काम किया है, उसकी तहे दिल से प्रशंसा, करीब ४१ बच्चों को शिक्षा के द्वार तक पहुचने के साथ इसने नागरिक संगठन - सेव द चिल्ड्रेन - के सहयोग से helpline संचालित की .जिसे हाल ही जयपुर में नागरिक संगठनों के एक अनौपचारिक समूह ने सराहा, वहां पत्रिका की पहल को बेहद सराहा गया और अब शिक्षा के अधिकार को लेकर चल रही बहस में हमारी भागीदारी अपेक्षित रहने लगी है, इस समूह में प्रदेश के सभी नामी और अन्तराष्ट्रीय संगठनों का प्रतिनिधित्व था. ....डूंगरपुर में हुए काम की सराहना यहाँ दूसरों के मुहं से सुनकर अच्छा लगा .....मिलन को बधाई
इंदौर में पंखुरी लगातार बस्तियों में बैठकें कर रही हैं, बच्चों की शिक्षा के लिए बेहतर और असल काम करने की कोशिश है, वहां संपादकीय अभियान ने ज़बरदस्त माहौल बनाया और जागरूकता का असर जल्द ही प्रवेश की स्थिति में नज़र आएगा ...इंदौर में helpline ने भी अधिकार का उपयोग करने में मदद की. दीनबंधु नाम की संस्था ने इस काम में काफी मदद की
एक मजदूर के बच्चे को वहां के नामी स्कूल में प्रवेश लीड के तौर पर ली, तब एहसास हुआ कि अपने बूते कितनों को शिक्षा कि रौशनी नसीब हो जाएगी, सुकून का ये एहसास अपने रिपोर्टर्स की ज़बानी सुनकर अच्छा लगा. इंदौर की नुपुर को ये एहसास था कि  हम बहुत नेक काम में हाथ बंटा रहे हैं . ...नुपुर ने बहुत बेहतर तरीके से अभियान को अंजाम दिया ...उसे बधाई

अभियान के बारे में और संस्करणों की कहानी और रिपोर्टर्स की पहल के बारे में भी जल्द ही............. 

क्षिप्रा
http://patrika.com/mag/Index.Html

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email: in.mediaactiongroup@gmail.com





Saturday, 28 May 2011

थैले में स्कूल, सड़क पर क्लास....

कक्षा पांच का अर्जुन डॉक्टर बनना चाहता है, लेकिन उसके गरीब पिता उसे जिस सरकारी स्कूल में पढ़ा रहा है उसकी बदहाली अर्जुन की आंख को धुंधला करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। उसके स्कूल में न तो बैठने की व्यवस्था है न पानी की और न शौचालय की। अर्जुन का स्कूल जयपुर में लोगों को हवाई अड्डे से लाने ले जाने वाली टोंक रोड के नजदीक चलता है। अम्बेडकर कॉलोनी के इस राजकीय प्राथमिक विद्यालय में करीब ४५ बच्चे और दो अध्यापिकाएं हैं। सुविधा से महरूम बच्चों के मज़दूर माता पिता बच्चों की सुरक्षा को लेकर हरदम चिन्तित रहते हैं और बच्चों को रोजाना स्कूल भेजने में कतराते भी हैं। अर्जुन और उसके साथियों के माता पिता उन्हें अच्छी पढ़ाई के लिए निजी स्कूलों में भेजना चाहते हैं लेकिन गरीब की फटी पोटली में फीस भरने को पैसे नहीं।



http://patrika.com/mag/ 

Thursday, 26 May 2011

2 - शिक्षा का अधिकार ----- तो संवर जाऊं मैं.....

मासूम दरख्वास्त  
क्या वाकई कलक्टर, क्लर्क और कल्लू चपरासी के बच्चे कभी सहपाठी होंगे? क्या हर एक बच्चा बराबरी के हक के साथ बढिय़ा शिक्षा का हक पा जाएगा? बच्चों की शिक्षा पर गरीब मां बाप को एक भी पैसा खर्च नहीं करना पड़ेगा? कब तक  वक्त की सख्ती में पलते बच्चों को तख्ती थामने का मौका मिल पाएगा?  देश के 70 फीसदी बच्चे आठवीं से पहले स्कूल छोड़ देते हैं और 80 फीसदी 11वीं से पहले। इसके अलावा देश के कुल 80 लाख और 14 साल के करीब 80 हजार बच्चे फिलहाल शिक्षा से वंचित हैं। राज्य में 6 से 14 साल के बच्चों की संख्या प्रदेश की कुल आबादी की करीब 20 फीसदी है। इनमें से डेढ़ लाख से भी ज्यादा को स्कूली शिक्षा नसीब नहीं और एक लाख से ज्यादा बच्चे बीच में स्कूल छोड़ देते हैं। ये हालात तब हैं जब सर्व शिक्षा अभियान में सरकार सौ फीसदी नामांकन का दावा कर रही है। पिछले साल अगस्त में 6 से 14 साल के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार कानून बन गया और इस अप्रेल से लागू हो गया। गरीब-अमीर और शहर-गांव का भेद पाटने और सामाजिक समानता की जड़ें मजबूत करने की सोच से सींचे इस कानून में कई प्रावधान हैं जिन पर चलकर बुनियादी शिक्षा व्यवस्था में थोड़े सुधार की आस जरूर बंधती है लेकिन संशय बरकरार है।
स्कूल प्रबन्धन में 75 सामुदायिक भागीदारी, निजी स्कूलों की जिम्मेदारी और गुणवत्ता के पैमानों का मुद्दा अहम है। सभी बच्चों को समान स्कूलों में समान शिक्षा कब तक मिल पाएगी, इसका कहीं कोई आकलन नहीं है। यह कानून मौजूदा हालात में क्या बेहतरी लाएगा ? जवाब ढूंढने निकले तो लगा शहरी और ग्रामीण बस्तियों के बीसियों स्कूल की टूटी जालियों से तकते बच्चे कह रहे हों - मैं वो मिट्टी हूं जो है चाक की गर्दिश में असीर- कैद, तू अगर हाथ लगा दे तो संवर जाऊंगा। काश हाकिमों को भी सुनाई दे जाए ये मासूम दरख्वास्त। 


                                                                                                                           
क्षिप्रा माथुर 


Tuesday, 24 May 2011

1. शिक्षा का अधिकार

पिछले साल अप्रेल में 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त शिक्षा का कानूनी हक मिला तो उम्मीद थी कि अब देश के उन 16 करोड़ बच्चों की किस्मत बदल जाएगी जो अपने हालात की वजह से स्कूल से छिटके रह गए। पत्रिका ने इस अधिकार के उस पहलू पर मुहिम शुरू की जिसे लेकर देश के तमाम बड़े निजी स्कूलों की लॉबी सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा चुकी थी और कोर्ट उनकी तमाम दलीलों को खारिज कर चुका था। मसला अनुदानित और गैर अनुदानित और किसी भी बोर्ड से मान्यता प्राप्त निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीटों पर गरीब व वंचित वर्ग के बच्चों के आरक्षण का। नियमों को कैसे दफन किया जाता है हम जानते हैं इसीलिए हमने संकल्प लिया - सबको पढ़ाएं, आगे बढ़ाएं।
जब जमीनी हकीकत खंगाली तो अन्दाजा हुआ न जरूरतमन्दों को अपने हक की जानकारी है न ही प्रशासन नियमों को कड़ाई से लागू करने के लिए राज़ी है। दूसरी ओर निजी स्कूलों की लॉबी का दबाव भी लगातार बना हुआ है।  निजी स्कूलों के तर्क हैं कि गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूल हैं ही फिर हम पर ये भार क्यों। मुफ्त में पढ़ाने का भार कैसे सहेंगे। गरीब बच्चा अभिजात्य परिवारों के बच्चों के समकक्ष कैसे आ पाएगा। कानून में साफ- साफ लिखा होने के बावजूद नियम कायदे ताक में रखे थे।
पत्रिका ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में निजी स्कूलों में गरीब बच्चों के प्रवेश की पड़ताल शुरू की। इस पड़ताल को तीन स्तरीय योजना बनाई-
  • निजी स्कूलों की हकीकत मालूम करना, जिम्मेदारी से बचने वालों की खैर खबर लेना और पोल खोलना 
  • सरकारी मशीनरी और स्कूल शिक्षा विभागों को नींद से जगाना  
  • गैर सरकारी नागरिक समूहों को साथ लेकर वंचित बच्चों की पहचान करना और उनके दाखिले के लिए आवेदन भरवाना
तीनों राज्यों के कुल साठ जि़लों में अपने रिपोर्टर्स की फौज लगाकर निजी स्कूलों की खबर लेनी शुरू की तो स्कूलों में भी खलबली मच गई और जिला प्रशासन ने भी कागज खंगालने शुरू किए। राजस्थान में 31 मार्च को शिक्षा विभाग के आदेश के बावजूद स्कूलों तक कागज नहीं पहुचे तो जबानी तौर पर स्कूलों को अगले साल तक आदेश की पालना की मोहलत देने की तैयारी भी सामने आई। बड़े स्कूलों ने अपने बचाव में हर सम्भव तर्क दिए तो छोटे स्कूलों ने नियम का हवाला देने पर प्रवेश देने की प्रक्रिया शुरू की। राजस्थान में ढाई लाख की सालाना आय को गरीब व वंचित वर्ग का पैमाना बनाकर निजी स्कूलों के लिए ढाल खड़ी करने की चाल बखूबी चली गई तो मध्यप्रदेश में प्रशासन ने सक्रियता बरतते हुए निजी स्कूलों पर सख्ती बरतने में हमारा साथ दिया।
मुहिम में हमने हर जिले के पांच बड़े निजी स्कूलों पर नज़र रखी, साथ ही सामाजिक संगठनों के जरिए उस स्कूल के इर्द- गिर्द बसे गरीब बच्चों की पहचान करवाई। उनकी समझाइश की। उनके हक के बारे में उन्हें बताया। उन्हें लेकर निजी स्कूलों के पास गए। स्कूलों ने आनाकानी की तो उनकी खबर ली। स्कूलों ने सरकारी गाइडलाइन नहीं मिलने, बच्चे के पास पूरे दस्तावेज न होने, प्रमाण पत्रों को अटेस्ट करवाकर लाने, सीबीएसई बोर्ड होने, जिला शिक्षा अधिकारी से लिखित में लाने के बाद प्रवेश पाने आदि अडंग़े लगाकर बला टालने की भरपूर कवायद की। तो हमने हेल्पलाइन के माध्यम से उन्हें भी नियम कायदों की जानकारी दी। निर्देश की कॉपी मुहैया करवाई। कहीं स्कूलों में प्रवेश प्रक्रिया पूरी होने का बहाना आया तो हमने समस्या जिला शिक्षा अधिकारी तक पहुंचाई । वहां इन स्कूलों को 25 फीसदी गरीब बच्चों को प्रवेश नहीं देने वाले स्कूलों को इतनी ही सीटें बढ़ाकर प्रवेश देने का आदेश हुआ। इस मुहिम का सबसे सुखद पहलू ये रहा कि इस मुहिम में सामाजिक संगठनों ने हमारा दिल से साथ दिया। गरीब बच्चों को शिक्षा के दर तक पहुंचाने में उन्होंने आहूति दी। और इस बूते अभी तक सैकड़ों बच्चे निजी स्कूलों में अपने हक पाने की कतार में लगे हैं। प्रवेश प्रक्रिया जारी है और हमारी मुहिम भी।
जिनके शिक्षा के अधिकार की बात है वे तो अपने हर अधिकार से अनजान हैं जिम्मेदारी समाज की, हर मजबूत हाथ की है जो एक-एक नन्ही उंगली थामने का बीड़ा उठा ले। सिर्फ मीडिया की नहीं अन्य करोबारी समूह, प्रोफेशनल्स और समाजसेवियों के लिए मौका है ज्ञान के लिए दान का, योगदान का।
                                                                                                                                                क्षिप्रा माथुर

http://patrika.com/mag