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Monday, 1 August 2011

KUCHAMAN CITY - Swinging in the Fairs as helpers, need a Mobile School!! Can RTE help??

 ‘झूलों’ में झूल रही है ‘जिदंगी’
हिमांशु धवल, कुचामनसिटी। १ अगस्त.
-मीडिया एक्शन गु्प की पड़ताल
-झूलों का कारोबार करने वालों के बच्चों की दास्तान
-सैकड़ों बच्चों का भविष्य अंधकार में
-शिक्षा तो दूर की बात, बच्चों को बचपन भी छिन रहा है


मेलों में झूले लगाने वाले परिवारों की जिन्दगी खुद ‘झूला’ बन गई है। झूला लगाते-चलाते ये परिवार किस कदर झूल रहे हैं, वे दुनियादारी की भी परवाह नहीं रही है। ऐसे परिवारों के  बच्चों का भविष्य न केवल अंधकार रूपी गर्त की भेंट चढ़ रहा है बल्कि बचपन भी छिन रहा है। खेलने-कूदने व पढऩे की उम्र मे सैकड़ों बच्चे झूले-चकरी के कार्य में ‘हैल्पर’ की भूमिका निभा रहे हैं। उन्हें झूलों एवं खतरों से खेलने वाले कार्य विरासत में मिल रहे है। ऐसे में ये बच्चे शिक्षा के अधिकार से कोसों दूर है।
‘राजस्थान पत्रिका’ के मीडिया एक्शन गु्रप टीम ने ऐसे परिवारों की पड़ताल की तो स्थिति चौकानें वाली नजर आई। ऐसे परिवार गांव-शहर में मेले लगाकर अपनी आजीविका चला रहे हैं। एक गांव या शहर में मेला खत्म होते ही दूसरे गांव-शहर की ओर रूख कर रहे हैं ऐसे परिवार। दो दिन पहले हरियाली अमावास के मेले में झूले लगाने कुचामनसिटी आए परिवारों की ‘पत्रिका’ ने दास्तान सुनी। यहां पर कुल 25 परिवार मिले। जो एक साथ खानाबदोश कबीले के रूप में हर मेले में जाकर कारोबार कर रहे हैं। इनमें झूले-चकरी, मौत का कुआं, सर्कस, इलेक्ट्रीक झूले, ब्रेक डांस, झूला कश्ती, मिक्की माउस, हवा में झूलती नांव आदि लगा रहे हैं। छानबीन की तो इन परिवारों के साथ करीब 100 बच्चे शिक्षा से वंचित पाए गए। परिवारों के मुखियाओं से पूछा तो वे अपनी देहाती भाषा में बोले, पढक़र क्या करेंगे, हमनें भी पढ़ाई नहीं की, और पढ़ेंगे भी कैसे, हम एक जगह तो रूकते ही नहीं। ऐसे परिवारों की व्यथा सुनकर कई सवाल खड़े हो गए। जिनका जवाब भी शायद मुश्किल है।
हर पल मौत का साया--
ऐसे परिवारों के सिर पर हर पल मौत का साया मंडराता रहता है। कई परिवार इलेक्ट्रॉनिक झूले तथा जनरेटर से चलने वाले कई मनोरंजन के खेल भी चलाते हैं। ऐसे में यहां के नन्हें-मुन्नों के सिर पर भी हर पल खतरा पसरा रहता है।
बारस मास टेंट में ‘जिन्दगी’-
झूले-चकरी जैसे कार्य में जुटे परिवार साल भर खुले आसमान के नीचे टेंटमें गुजर-बसर कर रहे हैं। सर्दी हो या बरसात या फिर गर्मी ऐसे परिवारों के लिए मुसीबत के पहाड़ खड़े करती है, लेकिन पेट की मजबूरी के चलते ऐसे परिवार तमाम तरह की मुश्किलें झेलने को मजबूर है।
रूखसार, शबाना भी पढऩा चाहती है---
झूला-चकरी लगाने वाले कबीले में रूखसार, शबाना, समीर सहित कई बच्चों ने स्कूल जाकर पढऩे की इच्छा जताई। इन बच्चों ने कहा कि वे पढ़ाई कैसे करें, हमारा परिवार तो एक जगह रूकता ही नहीं है। घर वाले ठिकाने भी बदल देते हैं।
घंटों के लिए दस दिन की मेहनत
मेले में लोगों के कुछ घंटों के मनोरंजन के लिए इन्हें कई दिन खराब करने पड़ते हैं। मेले में झूले, चकरी, मौत का कुएं आदि लगाने में करीब १० दिन का समय लगता है। ऐसे कार्य में बच्चे भी सहयोग करते हैं।
बारिश से मेहनत पर पानी
मेले वालों के लिए बारिश परेशानी का पैगाम लाती है। बारिश के कारण झूले एवं मौत के कुएं आदि बंद करने पड़ते हैं। इसके कारण समय एवं धन दोनों बर्बाद हो जाता है।
मुनाफा हुआ कम
झूले, चकरी एवं मौत का कुएं आदि का सामान ट्रकों के माध्यम से लाया जाता है। महंगाई के चलते ट्रकों के भाड़े में तो बढ़ोतरी हो गई। लेकिन झूले आदि की रेट आज भी वही चल रही है। इसके चलते दिनों दिन मुनाफा कम होता जा रहा है।

मेले-दर-मेले घूमती जिन्दगी
हरियाली अमावस के कुछ दिन पहले ही ऐसे खानाबदोश परिवार अपना गांव छोडक़र कुचामनसिटी पहुंच जाते है। यहां पर हरियाली अमावस्या के मेले के बाद मौलासर एवं इसके बाद खुण्डियास मेले जाते हैं। झूले व मौत के कुएं संचालकों के अनुसार साल में दस महिने परिवार सहित घरों से बाहर रहते हैं। सिर्फ दो महिने गांव में रहते हैं। इसके अलावा अधिकांश लोग इनके साथ ही घूमते रहते हैं।

Hold one finger, help them write their future...

http://epaper.patrika.com/9003/Rajasthan-Patrika-Jaipur/01-08-2011#p=page:n=9:z=1
वर्ष 2002 में संविधान में 86वां संशोधन कर अनुच्छेद 21 अ जोड़ा गया और शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार बन गया। कानून लागू हुआ पिछले साल और अभी तक सरकार उन बच्चों की पहचान तक नहीं कर पाई है जिन्हें ये हक मिलना है। प्रारम्भिक शिक्षा की प्राथमिकता ही तय नहीं। न हक की गारण्टी, न सुविधाओं की, न गुणवत्ता की।
हर एक थामे नन्ही उंगली
मुफ्त व अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा कानून लागू होने के बाद भी न इसके क्रियान्वयन को लेकर सरकार के पास न कोई कार्ययोजना है न संजीदगी। राजस्थान पत्रिका ने राजस्थान, मध्यप्र्रदेश और छत्तीसगढ़ तीनों राज्यों में चलाए आओ पढ़ाएं, सबको बढ़ाएं अभियान के तहत गरीब बच्चों को नज़दीकी निजी स्कूलों की 25 फीसदी सीटों पर मुफ्त प्रवेश की मुहिम शुरू की। प्रदेश में इस प्रावधान को लेकर न तो निजी स्कूलों के पास कोई निर्देश पहुंचे, न ही फीस भुनर्भरण का कोई फार्मूला अभी तक तैयार हुआ। जागरूकता के अभाव में असल वंचित बच्चों ने प्रवेश के लिए आवेदन ही नहीं किया तो स्कूलों की मिली भगत से सक्षम परिवारों ने ये आरक्षित सीटें हथिया लीं। राजस्थान सरकार ने तो 20 हजार मासिक आय वाले परिवारों को गरीब और वंचित की परिभाषा में शामिल कर असल हकदारों को फिर हाशिए पर धकेल दिया है।

हमारी पहल पर हजारों बच्चों को निजी स्कूलों ने प्रवेश मिल गया, जिनका पूरा लेखा जोखा हमारे पास है और भामाशाहों ने उनकी किताबों, बस्तों, यूनीफॉर्म आदि की जिम्मेदारी भी उठा ली लेकिन अब बड़ी चुनौती ये है कि ये गरीब बच्चे आलीशान स्कूलों के माहौल और पढ़ाई से सामंजस्य कैसे बिठाएं और आए दिन होने वाले खर्चों का बोझ कैसे सहें। कई स्कूल इन बच्चों को हर संभव मदद कर रहे हैं तो कुछ ऐसी परिस्थितियां पैदा कर रहे हैं कि अभिभावक तंग आकर खुद ही दाखिला निरस्त करवा लें। राजधानी के निजी स्कूल इन सीटों पर प्रवेश की कोई जानकारी नहीं दे रहे जबकि कानून साफ कहता है कि आरक्षित सीटों की प्रवेश प्रक्रिया की जानकारी आम जन के लिए उपलब्ध रहेगी और सीटों की स्थिति उन्हें सार्वजनिक करनी होगी। पूछने पर सभी कह रहे हैं कि हमने 25 फीसदी गरीबों को दाखिला दिया है। राजस्थान सरकार 25 फीसदी आरक्षित सीटों पर की गई भर्ती की रिपोर्ट भी इकट्ठा कर रही है, अब नज़र ये रखनी है कि कागज़ों में किन किनको गरीब बताकर कानून का मखौल उड़ाया जाता है। अभियान के तहत हमने सरकार की चाइल्ड ट्रेकिंग सर्वे और नामांकन अभियान की भी पोल खोली और सरकारी स्कूलों में भी अभियान के जरिए बच्चों को दाखिले करवाए। मीडिया एक्शन ग्रुप के बैनल तले चले इस अभियान में समाज के लिए प्रतिबद्ध लोगों, नागरिक समूहों, प्रशासन, जनप्रतिनिधियों, अध्यापकों आदि को भी जोड़ा, गरीब बस्तियों में जाकर समझाइश की और निजी स्कूलों से निवेदन। दूर दराज के गांवों में जाकर अधिकार के बारे में जागरूक किया और नामांकन करवाया। सरकारी स्कूलों में भी दाखिले करवाए। मालूम हुआ सरकार के हिसाब से जितने बच्चे स्कूल से बाहर हैं उससे ज्यादा हमने उस गांव में प्रवेश करवा दिए। हाशिए के लोगों को जोडऩे के लिए रात्रि चौपाल, चलो स्कूल और शिक्षा पंचायत  जैसे कई प्रयोग किए। अभियान के तहत उजागर खामियों, गरीब बच्चों को मिली मदद और नवाचारों की सारी जानकारी इस ब्लॉग पर पढ़ी जा सकती है।

हर नागरिक एक बच्चे की जिम्मेदारी उठा ले तो हालात जल्द बदलेंगे। उन्हें अच्छी शिक्षा का हक दिलाने के लिए चाहे निजी स्कूल में या सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाएं और हमें सूचित भी करें, ताकि जन पहल का आंकड़ा भी हमारे पास रहे।

 केन्द्र का पक्ष- निजी स्कूलों में 25  फीसदी सीट वंचित वर्ग के लिए आरक्षित रखने के मसले पर पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट में अटार्नी जनरल जीई वहनवती ने निजी स्कूलों की आपत्ति खारिज की। तीन जजों की बेन्च के सामने उन्होंने कहा स्कूल चलाने के अधिकार से कहीं ज्यादा अहमियत बच्चों के अधिकार की है। अलग अलग सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक पृष्ठभूमि के बच्चों का एक ही कक्षा में साथ बैठकर संवाद करना उनके सीखने की प्रक्रिया का अहम हिस्सा है।


क्षिप्रा  माथुर 
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