पिछले साल अप्रेल में 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त शिक्षा का कानूनी हक मिला तो उम्मीद थी कि अब देश के उन 16 करोड़ बच्चों की किस्मत बदल जाएगी जो अपने हालात की वजह से स्कूल से छिटके रह गए। पत्रिका ने इस अधिकार के उस पहलू पर मुहिम शुरू की जिसे लेकर देश के तमाम बड़े निजी स्कूलों की लॉबी सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा चुकी थी और कोर्ट उनकी तमाम दलीलों को खारिज कर चुका था। मसला अनुदानित और गैर अनुदानित और किसी भी बोर्ड से मान्यता प्राप्त निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीटों पर गरीब व वंचित वर्ग के बच्चों के आरक्षण का। नियमों को कैसे दफन किया जाता है हम जानते हैं इसीलिए हमने संकल्प लिया - सबको पढ़ाएं, आगे बढ़ाएं।
जब जमीनी हकीकत खंगाली तो अन्दाजा हुआ न जरूरतमन्दों को अपने हक की जानकारी है न ही प्रशासन नियमों को कड़ाई से लागू करने के लिए राज़ी है। दूसरी ओर निजी स्कूलों की लॉबी का दबाव भी लगातार बना हुआ है। निजी स्कूलों के तर्क हैं कि गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूल हैं ही फिर हम पर ये भार क्यों। मुफ्त में पढ़ाने का भार कैसे सहेंगे। गरीब बच्चा अभिजात्य परिवारों के बच्चों के समकक्ष कैसे आ पाएगा। कानून में साफ- साफ लिखा होने के बावजूद नियम कायदे ताक में रखे थे। पत्रिका ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में निजी स्कूलों में गरीब बच्चों के प्रवेश की पड़ताल शुरू की। इस पड़ताल को तीन स्तरीय योजना बनाई-
- निजी स्कूलों की हकीकत मालूम करना, जिम्मेदारी से बचने वालों की खैर खबर लेना और पोल खोलना
- सरकारी मशीनरी और स्कूल शिक्षा विभागों को नींद से जगाना
- गैर सरकारी नागरिक समूहों को साथ लेकर वंचित बच्चों की पहचान करना और उनके दाखिले के लिए आवेदन भरवाना
मुहिम में हमने हर जिले के पांच बड़े निजी स्कूलों पर नज़र रखी, साथ ही सामाजिक संगठनों के जरिए उस स्कूल के इर्द- गिर्द बसे गरीब बच्चों की पहचान करवाई। उनकी समझाइश की। उनके हक के बारे में उन्हें बताया। उन्हें लेकर निजी स्कूलों के पास गए। स्कूलों ने आनाकानी की तो उनकी खबर ली। स्कूलों ने सरकारी गाइडलाइन नहीं मिलने, बच्चे के पास पूरे दस्तावेज न होने, प्रमाण पत्रों को अटेस्ट करवाकर लाने, सीबीएसई बोर्ड होने, जिला शिक्षा अधिकारी से लिखित में लाने के बाद प्रवेश पाने आदि अडंग़े लगाकर बला टालने की भरपूर कवायद की। तो हमने हेल्पलाइन के माध्यम से उन्हें भी नियम कायदों की जानकारी दी। निर्देश की कॉपी मुहैया करवाई। कहीं स्कूलों में प्रवेश प्रक्रिया पूरी होने का बहाना आया तो हमने समस्या जिला शिक्षा अधिकारी तक पहुंचाई । वहां इन स्कूलों को 25 फीसदी गरीब बच्चों को प्रवेश नहीं देने वाले स्कूलों को इतनी ही सीटें बढ़ाकर प्रवेश देने का आदेश हुआ। इस मुहिम का सबसे सुखद पहलू ये रहा कि इस मुहिम में सामाजिक संगठनों ने हमारा दिल से साथ दिया। गरीब बच्चों को शिक्षा के दर तक पहुंचाने में उन्होंने आहूति दी। और इस बूते अभी तक सैकड़ों बच्चे निजी स्कूलों में अपने हक पाने की कतार में लगे हैं। प्रवेश प्रक्रिया जारी है और हमारी मुहिम भी।
जिनके शिक्षा के अधिकार की बात है वे तो अपने हर अधिकार से अनजान हैं जिम्मेदारी समाज की, हर मजबूत हाथ की है जो एक-एक नन्ही उंगली थामने का बीड़ा उठा ले। सिर्फ मीडिया की नहीं अन्य करोबारी समूह, प्रोफेशनल्स और समाजसेवियों के लिए मौका है ज्ञान के लिए दान का, योगदान का।
http://patrika.com/mag
जिनके शिक्षा के अधिकार की बात है वे तो अपने हर अधिकार से अनजान हैं जिम्मेदारी समाज की, हर मजबूत हाथ की है जो एक-एक नन्ही उंगली थामने का बीड़ा उठा ले। सिर्फ मीडिया की नहीं अन्य करोबारी समूह, प्रोफेशनल्स और समाजसेवियों के लिए मौका है ज्ञान के लिए दान का, योगदान का।
क्षिप्रा माथुर
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