‘आओ पढ़ाएं, सबको बढ़ाएं’ के संबंध में
राजस्थान पत्रिका के अभियान ‘आओ पढ़ाएं, सबको बढ़ाएं’ के तहत आज दिनांक २१.०७.२०११ को ब्यावर ब्यूरो की ओर से द्वितीय कड़ी तैयार की है। पत्रिका ब्यावर ब्यूरों के संवाददाता श्री शरद शुक्ला ने शहर की कुछ निजी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश नहीं पा सकने वाले बच्चों से बातचीत की, अधिकांश ने इसे आर्थिक पिछड़ापन होना बताते हुए निजी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश नहीं पाने की मजबूरी को आधार बताया। अगली कड़ी में वंचित व ड्रॉपआउट बच्चों की स्थिति का अध्ययन किया जाएगा। अब तक अध्ययन में यह पाया गया कि सरकारी स्कूलों में तो फिर भी कमोवेश वंचित बच्चों को शिक्षण का मौका मिल रहा है, पर निजी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश की स्थिति शून्य के बराबर है। द्वितीय कड़ी का समाचार भी संलग्न कर भेजा जा रहा है।
़ धन्यवाद।
दिनांक- २१ जुलाई, २011
़ धन्यवाद।
दिनांक- २१ जुलाई, २011
भवदीय
दिलीप शर्मा, ब्यूरो प्रभारी
ब्यावर कार्यालय
राजस्थान पत्रिका
dilip.sharma@epatrika.com
दिलीप शर्मा, ब्यूरो प्रभारी
ब्यावर कार्यालय
राजस्थान पत्रिका
dilip.sharma@epatrika.com
नहीं मिल सका एडमीशन!
-विवशता में सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों से बातचीत में छलकी उनकी पीड़ा
-निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटों पर वंचितों को प्रवेश देने का मामला
कार्यालय संवाददाता @ ब्यावर
ब्यावर, २१ जुलाई।
मंहगे अंग्रेजी स्कूलों में प्रवेश न मिलने की कसक बच्चों के चेहरे पर स्पष्ट नजर आई। बच्चों का कहना है कि शिक्षा के अधिकार के तहत निजी स्कूलों में उन्हें कभी भी दाखिला नहीं मिलने वाला है, क्योंकि जिनके ऊपर इस नियम के क्रियान्वयन कराने की जिमेदारी है, खुद उनके बच्चे ऐसे स्कूलों में ही अध्ययनरत हैं। ऐसे में वह सती कैसे कर पाएंगे। इस बारे में ऐसे बच्चों से बातचीत की गई, जो पढऩा तो अंग्रेजी स्कूलों में चाहते हैं, मगर उनकी आर्थिक रुप से पिछड़े हालात व अधिकारियों के उदासीन रवैऐ की वजह से उन्हें सरकारी स्कूलों में पढऩे के लिए मजबूर होना पढ़ा।
आर्थिक रुप से पिछड़े परिवार का बच्चा सरकारी स्कूल में पढ़ेगा। उसे निजी स्कूलों में प्रवेश नहीं मिल सकता है। ऐसे स्कूल जहां प्रति बच्चे अपने यहां प्रवेश के कथित भारी-भरकम डोनेशन (अघोषित दान राशि) लेते हैं, ऐसे हालात में वह अगर आर्थिक रुप से पिछड़े बच्चों को प्रवेश देने लगेंगे तो फिर वह डोनेशन व किताबों एवं अन्य शुल्क मद के नाम पर अच्छी-खासी राशि कैसे वसूलेंगे। यह तथ्य सरकारी स्कूलों में सर्वे के दौरान पढऩे वाले बच्चों से बातचीत के बाद सामने आए।
शहर के मोतीपुरा बाडिय़ा स्कूल में अध्ययनरत लक्ष्मीनारायण, माया व रजनी आदि बच्चों से बातें हुई तो खुद उनके शब्दों में ऐसे स्कूलों में न पढ़ पाने की पीड़ा सिर्फ उनकी मासूम आंखों में नहीं छलकी, बल्कि चेहरों पर भी स्पष्ट नजर आई। इनके परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। माता-पिता दोनों ही हाड़तोड़ मेहनत करते हैं, तब इनके घर का खर्च चलता है। इस स्थिति में अंग्रेजी स्कूल में पढऩा इनके लिए एक सपना है।
सपना बना अंग्रेजी स्कूल
मोतीपुरा में पढऩे वाली कविता रेगर पांचवीं कक्षा की छात्रा है। पिता मजदूरी करते हैं। मां घर का काम करती है। इसकी चार बहनों ने पैसे के अभाव में पांचवी के बाद पढ़ाई छोड़ दी। वह बाहर काम करने जाती हैं। कविता कहती है कि कानून पालन कौन कराएगा। जिनके ऊपर यह जिम्मेदारी है, उन्हीं के बच्चे तो ऐसे स्कूलों में पढ़ते हैं। ऐसे में वह दूसरों के भविष्य की चिंता क्यों करेंगे।
कागजी कानून
पांचवी कक्षा में क्षेत्र के ही सरकारी विद्यालय में अध्ययनरत माया कहती है कि देर से सरर्कुलर मिलने का तो बहाना है। देख लीजिएगा अगले वर्ष भी यही स्थिति रहेगी। डोनेशन लेने वाले विद्यालय हमें प्रवेश कैसे दे सकते हैं। पिता मजदूरी करते हैं और मां भी पीपलाज स्थित एक फैक्ट्री में काम करने जाती है। आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।
कुछ नहीं होनेवाला है
छठी कक्षा के लक्ष्मीनारायण सिसोदिया का कहना है कि सीधी सी बात है कि हमारे माता-पिता गरीब है। ऐसे हालात में सरकारी स्कूलों में पढऩा हमारी नीयत बन चुकी है। मेरा सपना तो डॉक्टर बनने का है, मगर यह सपना हकीकत में साकार होता है कि नहीं, शायद नहीं हो पाएगा। इसलिए की गरीबी ने हमारे लिए आगे बढऩे के दरवाजे बंद कर दिए हैं।
हमारी किस्मत ही ऐसी बन गई
मसूदा रोड पर रहने वाली रजनी क्षेत्र के ही एक सरकारी स्कूल में कक्षा छह की छात्रा है। उसका कहना है कि अमीरों के बच्चे तो मंहगे स्कूलों में पढ़ें, और हम सरकारी स्कूलों, यह हमारी किस्मत है। आज के समय में अंग्रेजी न जानने वाले बच्चों के लिए अच्छा चांस नहीं है। तकदीर ही ऐसी बन गई तो क्या कर सकते हैं।
कुछ भी नहीं हो सकता
मोतीपुरा बाडिय़ा प्राथमिक विद्यालय में अध्यापिका के पद पर कार्यरत पुष्पा माली का कहना है कि निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटों पर वंचितों को प्रवेश दिलाने का कानून भी फाइलों में कैद होकर ही रह जाएगा। अभिभावकों से अच्छी-खासी राशि वसूलने वाले स्कूल संचालक वंचितों को प्रवेश देंगे ही नहीं, क्योंकि फिर वह डोनेशल कैसे ले पाएंगे। अब सरकार तो डोनेशन देने से रही। सरर्कुलर देर से मिलने का तो बहाना है। देख लीजिएगा अगले वर्ष भी यही स्थिति रहेगी।
-शरद शुक्ला
-निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटों पर वंचितों को प्रवेश देने का मामला
कार्यालय संवाददाता @ ब्यावर
ब्यावर, २१ जुलाई।
मंहगे अंग्रेजी स्कूलों में प्रवेश न मिलने की कसक बच्चों के चेहरे पर स्पष्ट नजर आई। बच्चों का कहना है कि शिक्षा के अधिकार के तहत निजी स्कूलों में उन्हें कभी भी दाखिला नहीं मिलने वाला है, क्योंकि जिनके ऊपर इस नियम के क्रियान्वयन कराने की जिमेदारी है, खुद उनके बच्चे ऐसे स्कूलों में ही अध्ययनरत हैं। ऐसे में वह सती कैसे कर पाएंगे। इस बारे में ऐसे बच्चों से बातचीत की गई, जो पढऩा तो अंग्रेजी स्कूलों में चाहते हैं, मगर उनकी आर्थिक रुप से पिछड़े हालात व अधिकारियों के उदासीन रवैऐ की वजह से उन्हें सरकारी स्कूलों में पढऩे के लिए मजबूर होना पढ़ा।
आर्थिक रुप से पिछड़े परिवार का बच्चा सरकारी स्कूल में पढ़ेगा। उसे निजी स्कूलों में प्रवेश नहीं मिल सकता है। ऐसे स्कूल जहां प्रति बच्चे अपने यहां प्रवेश के कथित भारी-भरकम डोनेशन (अघोषित दान राशि) लेते हैं, ऐसे हालात में वह अगर आर्थिक रुप से पिछड़े बच्चों को प्रवेश देने लगेंगे तो फिर वह डोनेशन व किताबों एवं अन्य शुल्क मद के नाम पर अच्छी-खासी राशि कैसे वसूलेंगे। यह तथ्य सरकारी स्कूलों में सर्वे के दौरान पढऩे वाले बच्चों से बातचीत के बाद सामने आए।
शहर के मोतीपुरा बाडिय़ा स्कूल में अध्ययनरत लक्ष्मीनारायण, माया व रजनी आदि बच्चों से बातें हुई तो खुद उनके शब्दों में ऐसे स्कूलों में न पढ़ पाने की पीड़ा सिर्फ उनकी मासूम आंखों में नहीं छलकी, बल्कि चेहरों पर भी स्पष्ट नजर आई। इनके परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। माता-पिता दोनों ही हाड़तोड़ मेहनत करते हैं, तब इनके घर का खर्च चलता है। इस स्थिति में अंग्रेजी स्कूल में पढऩा इनके लिए एक सपना है।
सपना बना अंग्रेजी स्कूल
मोतीपुरा में पढऩे वाली कविता रेगर पांचवीं कक्षा की छात्रा है। पिता मजदूरी करते हैं। मां घर का काम करती है। इसकी चार बहनों ने पैसे के अभाव में पांचवी के बाद पढ़ाई छोड़ दी। वह बाहर काम करने जाती हैं। कविता कहती है कि कानून पालन कौन कराएगा। जिनके ऊपर यह जिम्मेदारी है, उन्हीं के बच्चे तो ऐसे स्कूलों में पढ़ते हैं। ऐसे में वह दूसरों के भविष्य की चिंता क्यों करेंगे।
कागजी कानून
पांचवी कक्षा में क्षेत्र के ही सरकारी विद्यालय में अध्ययनरत माया कहती है कि देर से सरर्कुलर मिलने का तो बहाना है। देख लीजिएगा अगले वर्ष भी यही स्थिति रहेगी। डोनेशन लेने वाले विद्यालय हमें प्रवेश कैसे दे सकते हैं। पिता मजदूरी करते हैं और मां भी पीपलाज स्थित एक फैक्ट्री में काम करने जाती है। आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।
कुछ नहीं होनेवाला है
छठी कक्षा के लक्ष्मीनारायण सिसोदिया का कहना है कि सीधी सी बात है कि हमारे माता-पिता गरीब है। ऐसे हालात में सरकारी स्कूलों में पढऩा हमारी नीयत बन चुकी है। मेरा सपना तो डॉक्टर बनने का है, मगर यह सपना हकीकत में साकार होता है कि नहीं, शायद नहीं हो पाएगा। इसलिए की गरीबी ने हमारे लिए आगे बढऩे के दरवाजे बंद कर दिए हैं।
हमारी किस्मत ही ऐसी बन गई
मसूदा रोड पर रहने वाली रजनी क्षेत्र के ही एक सरकारी स्कूल में कक्षा छह की छात्रा है। उसका कहना है कि अमीरों के बच्चे तो मंहगे स्कूलों में पढ़ें, और हम सरकारी स्कूलों, यह हमारी किस्मत है। आज के समय में अंग्रेजी न जानने वाले बच्चों के लिए अच्छा चांस नहीं है। तकदीर ही ऐसी बन गई तो क्या कर सकते हैं।
कुछ भी नहीं हो सकता
मोतीपुरा बाडिय़ा प्राथमिक विद्यालय में अध्यापिका के पद पर कार्यरत पुष्पा माली का कहना है कि निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटों पर वंचितों को प्रवेश दिलाने का कानून भी फाइलों में कैद होकर ही रह जाएगा। अभिभावकों से अच्छी-खासी राशि वसूलने वाले स्कूल संचालक वंचितों को प्रवेश देंगे ही नहीं, क्योंकि फिर वह डोनेशल कैसे ले पाएंगे। अब सरकार तो डोनेशन देने से रही। सरर्कुलर देर से मिलने का तो बहाना है। देख लीजिएगा अगले वर्ष भी यही स्थिति रहेगी।
-शरद शुक्ला
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