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अभियान के ज़रिये निजी और सरकारी स्कूलों में दाखिल बच्चों  का आंकड़ा 4००० के पार पंहुचा है.......आओ पढाएं, सबको बढ़ाएं  ..अभियान में सबकी आहूति  जारी है...क्षिप्रा

 सुबह दम जब भी देखा है मैंने कभी
नन्हे बच्चों  को स्कूल जाते हुए
रक्स करते हुए, गुनगुनाते हुए
अपने बस्तों को गर्दन में डाले हुए
उंगलियां एक की एक पकड़े हुए
सुबह दम जब भी देखा है मैंने उन्हें
मेरा जी चाहता की मैं दौड़ कर
एक नन्हे की उंगली पकड़ कर कहूं
मुझको भी अपने संग स्कूल लेते चलो
ताकी  ये तिश्रा ए आरज़ू जि़न्दगी
फिर से आगाज़े शौ़क ए सफर कर सके
ज़ुबैर रिज़वी

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शिक्षा का अधिकार ----

पड़ोस के स्कूल, असल या नकल
अगले तीन साल में पड़ोस के स्कूल विकसित किए जाएंगे। कैसे ये पता नहीं क्योंकि फिलहाल तो जो समझा जा रहा है वह यह कि बच्चों को अपने घर के नजदीकी स्कूलों में प्रवेश मिलेगा। पड़ोस के स्कूल के असल मायने हैं कि हर स्कूल को अपने तयशुदा दायरे में आने वाले सभी बच्चों को पढ़ाना होगा। आशय है कि हर इलाके में मौजूद स्कूल के दायरे में आने वाले तमाम बच्चे चाहे वे किसी भी वर्ग के हों उसी स्कूल में पढ़ेंगे। यानी मालिक हो या मज़दूर, अमीर हो या गरीब, अगड़ी या पिछड़ी किसी भी जाति का सब उनके इलाके के एक स्कूल में साथ पढऩे के हकदार होंगे। यह अवधारणा नई नहीं है। कोठारी कमिशन की साठ के दशक में आई रिपोर्ट में समान स्कूल की यही परिकल्पना थी कि सभी तबकों को जोडऩा है, उनमें एकजुटता लानी है। बाद में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने भी इसी सोच को सही ठहराया। पड़ोस में स्कूल तो पहले से ही हैं। देश की 99 फीसदी बस्तियों में एक किलोमीटर के भीतर एक प्राथमिक स्कूल और 92 बस्तियों में तीन किलोमीटर के भीतर एक उच्च प्राथमिक स्कूल मौजूद हैं। बहुत से निजी स्कूल कुछ सीटें गरीब बच्चों के लिए रखते हैं लेकिन इसमें दूर दराज की बस्तियों के बच्चों को भर्ती कर खानापूर्ती कर ली जाती है। उनकी पढ़ाई अन्य बच्चों से अलग समय में और अलग से करवाई जाती है। अगर स्कूलों का पूर्व निर्धारित पड़ोस होगा तो उसकी गुणवत्ता की चिन्ता भी सबकी होगी, अकेली सरकार की ही नहीं बल्कि इलाके के तमाम बाशिन्दों की भी। 

 क्षिप्रा

 

Tuesday, 12 July 2011

गरीब और वंचित बच्चों को मिली अच्छी शिक्षा, अच्छे स्कूल, और असल मदद संचार के नवाचार, लोगो का जुडाव, और टीम में मनोबल

निजी स्कूलों के साथ ही सरकारी में भी दाखिले के प्रयास शुरू
सवाल : गरीब और वंचित कौन??
 25 अप्रेल को निजी स्कूलों में 25 % सीट्स पर गरीब बच्चों के दाखिले क़ी मुहिम शुरू क़ी थी. उससे पहले हमने इस मुद्दे पर काम करने वाली संस्थाओं से चर्चा की, लेकिन लगा कि बस बातें हैं, हमने व्यवस्थित तरीके से बच्चों क़ी पहचान क़ी, उनके दाखिले के लिए स्कूलों के पास गए, उनकी समझाइश क़ी, सामाजिक संगठनों को जोड़ा, हेल्प लाइन चलाई, लोगों को जोड़ा, अधिकार के बारे में जागरूकता लाये, गाँव को गोद लिया, संचार और लोगों के जुड़ाव के पारंपरिक तरीके अपनाये, पत्रिका कनेक्ट के ज़रिये साथ साथ खड़ी हुई जनता क़ी टीम इस पुण्य काम में हमारे साथ कंधे से कन्धा मिलकर साथ चली....3 राज्यों के करीब सभी जिलों में ये अभियान चला, चल रहा है....हजारों का कारवां है, आंकड़ों में भी ज़बरदस्त तेज़ी है हमारी सीढ़ी दखल से अब तक करीब 1000 बच्चे स्कूल पहुच चुके हैं, आधिकारिक आंकड़ों में 50,000 से ज्यादा बच्चे स्कूल जाने क़ी ख़ुशी महसूस कर रहे हैं,यहाँ इस प्रावधान को लागू करने में पत्रिका - मैग के इस संपादकीय अभियान का दबाव और जनजागरूकता दोनों का योगदान रहा. ....हमारे ज़रिये चिह्नित किये गए बच्चों की सूची सरकारी नुमाइंदों से शेयर क़ी है, और भामाशाहों से भी....बच्चों को बस्ता, वर्दी का उपहार देने बहुत लोग आगे आये हैं, कुछ ने बच्चों को पढाई के लिए गोद लिया है....अब इलाके के जनप्रतिनिधि और सरकारी अमला भी साथ आने को आतुर है....
जो काम हम मीडिया और अपने संवाददाताओं के ज़रिये कर सकते है वो तमाम सरकारी - गैर सरकारी संस्थाएं अंजाम नहीं दे सकती. वे सिर्फ पैसा बहाना जानती हैं, हम सिर्फ जनता, बेहतर मंशा और अखबार के बूते जो किया वो मन को बहुत सुकून दे रहा है,  और अखबार को ताकत. हमारी टीम के लिए काम करने का नया रास्ता तैयार कर रहा है.
जो प्रतिक्रिया पाठकों क़ी, प्रदेश के भामाशाहों क़ी, स्थानीय पार्षदों, विधायकों और सांसदों क़ी, जिला प्रशासन और शिक्षा विभाग क़ी मिल रही है...अभूतपूर्व है, सामाजिक संगठनों ने भी आगे बढ़कर सहयोग किया है.
हमें समझना है की गरीब और वंचित कौन??  राजस्थान में 20 ,000 की मासिक आय वाले परिवारों को गरीब मान लिया गया है, चाहें तो सरकारी शिक्षा विभाग की site पर notification देख लें, यानी असल गरीब फिर वंचित ही रहेगा?? आगे इस अभियान में इस पर भी बात होगी...
संवाददाताओं में - करौली के सुनील, डूंगरपुर के मिलन, भीलवारा के भुवनेश, इंदौर क़ी नुपुर,और कोटा क़ी टीम सभी बेहद उत्साह से काम कर रहे हैं. सबको बधाई, सबका आभार.

क्षिप्रा 

Saturday, 4 June 2011


10 steps in 3 days - MAG netwroks widens

कोटा - 3 दिन में 10 कदम  - मैग नेटवर्क विस्तार पर
कोटा में 3 दिन में 10 वार्ड की शुरुआत हो चुकी है, हर वार्ड की टीम अपने अपने  स्तर पर मुद्दे और कार्यक्रम निर्धारित करने में जुटी हैं, वार्ड टीम मीडिया एक्शन ग्रुप - मैग के प्रतिनिधि के तौर पर काम करेगी. जल्द ही सभी को पहचान पत्र दिए जायेंगे ताकि इस पहचान को ताकत भी मिले और प्रतिनिधित्व भी. 
कोटा में वार्ड कार्यक्रमों में महिलाओं की भागीदारी भी नज़र आने लगी है. वार्ड 20 में  योग शिविर के साथ ही पार्क में लोगों के जुड़ाव का सिलसिला आरम्भ हो गया है. जल्द ही नवाचार नज़र आएंगे.
राजस्थान पत्रिका, कोटा संस्करण के स्थानीय संपादक  राकेश गाँधी ने धुँआधार काम शुरू किया है, संपादकीय टीम को नेतृत्व के साथ ही वार्ड के कामकाज को अपनी फ़ौज के ज़रिये बेहतर अंजाम दिया है.

 

A Movement of Thoughts - Through MAG

इंदौर में मैग टीम- हर वार्ड में विचारों का आन्दोलन, अहम मुद्दों पर जन आन्दोलन 
इंदौर में हर दिन एक वार्ड के उद्घाटन का लक्ष्य है, इस तरह 69 वार्ड्स में पत्रिका कनेक्ट के दफ्तर और मैग का नेटवर्क खड़ा होता चला जायेगा. इंदौर में 5 जून को India Against Corruption के नुमाइंदों के साथ वार्ड के मीडिया एक्शन ग्रुप - मैग सदस्यों की बैठक की तैयारी है, इसी के साथ सामाजिक बदलाव और बेहतरी के लिए कार्ययोजना और उसमें पत्रिका कनेक्ट की भागीदारी की रणनीति तैयार होगी....उम्मीद है की मैग टीम के बूते शहर के हर वार्ड में विचारों के आन्दोलन के साथ जन आन्दोलन का बिगुल बजेगा.
एमपी में ग्वालियर और जबलपुर , राजस्थान में भीलवाड़ा और बाँसवाड़ा में जल्द ही आगाज़ होगा. छत्तीसगढ़ में पत्रिका वार्ड कार्यालय के नाम से नेटवर्क खड़ा हो रहा है.... 

Wednesday, 1 June 2011


Awaad Do , Halaat Badlo

आवाज़ दो, हालात बदलो पत्रिका कनेक्ट अभियान  आज से इंदौर में शुरू हो रहा है. शहर की नामी सामाजिक कार्यकर्ता पेरिन दाजी की अगुवाई में उदघाटन होगा. अस्सी वर्षीय दाजी सम्माननीय और सर्वमान्य कार्यकर्ता हैं उम्मीद है वार्ड अभियान के ज़रिये सामाजिक बदलाव के लिए संगठित पहल का बिगुल बजेगा...मीडिया अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी के लिए लोगों के हाथ मज़बूत और आवाज़ बुलन्द करने का बीड़ा उठा रहा है...
कोटा में वार्ड १२ से काम का आगाज़ आज से हो रहा है, १२ वार्डों के लिए चिह्नित किये धर्म-राजनीती से परे लोगों की टीम तैयार की गयी है. एक बैठक कल आयोजित की गयी जिसका नेत्रत्व स्थानीय संपादक ने किया. जिनकी पहचान मीडिया एक्शन ग्रुप - मैग के सदस्यों के तौर पर होगी और कमान भी मैग के हाथ.
अभियान का उद्देश्य है स्थानीय मुद्दों के प्रति जागरूकता, पहल, समस्या निराकरण में वार्ड की आत्मनिर्भरता, और अपना काम अपने हाथ. व्यवहार, सोच, कामकाज के तरीके में लोकतान्त्रिक सोच अपनाना.बदलाव, पहल और सामुदायिक भागीदारी के लिए नवाचार करना. ज़मीनी दखल कर मुद्दों को उठाना, सुलझाना, व्यवस्था कायम करना. आम जन के हित के लिए आन्दोलनों की अगुवाई करना. जनमुद्दों पर रायशुमारी करवाना....
भोपाल, जबलपुर, बांसवाडा, भीलवाडा ....में भी तैयारी ज़ोरों पर है...इसी हफ्ते हलचल सुनाई देगी

Sunday, 29 May 2011

Education Campaign - bhilwara, doongarpur and Indore did so well

भुवनेश, नुपुर, मिलन और पंखुरी ने अभियान को दिया बेहतर अंजाम
भुवनेश ने भीलवाडा में गरीब बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाने, लोगों को जोड़ने और बच्चों के लिए समाज के लोगों से आर्थिक मदद हासिल करने में पूरी शिद्दत से काम किया है.
डूंगरपुर के मिलन ने अद्भुत काम किया है, उसकी तहे दिल से प्रशंसा, करीब ४१ बच्चों को शिक्षा के द्वार तक पहुचने के साथ इसने नागरिक संगठन - सेव द चिल्ड्रेन - के सहयोग से helpline संचालित की .जिसे हाल ही जयपुर में नागरिक संगठनों के एक अनौपचारिक समूह ने सराहा, वहां पत्रिका की पहल को बेहद सराहा गया और अब शिक्षा के अधिकार को लेकर चल रही बहस में हमारी भागीदारी अपेक्षित रहने लगी है, इस समूह में प्रदेश के सभी नामी और अन्तराष्ट्रीय संगठनों का प्रतिनिधित्व था. ....डूंगरपुर में हुए काम की सराहना यहाँ दूसरों के मुहं से सुनकर अच्छा लगा .....मिलन को बधाई
इंदौर में पंखुरी लगातार बस्तियों में बैठकें कर रही हैं, बच्चों की शिक्षा के लिए बेहतर और असल काम करने की कोशिश है, वहां संपादकीय अभियान ने ज़बरदस्त माहौल बनाया और जागरूकता का असर जल्द ही प्रवेश की स्थिति में नज़र आएगा ...इंदौर में helpline ने भी अधिकार का उपयोग करने में मदद की. दीनबंधु नाम की संस्था ने इस काम में काफी मदद की
एक मजदूर के बच्चे को वहां के नामी स्कूल में प्रवेश लीड के तौर पर ली, तब एहसास हुआ कि अपने बूते कितनों को शिक्षा कि रौशनी नसीब हो जाएगी, सुकून का ये एहसास अपने रिपोर्टर्स की ज़बानी सुनकर अच्छा लगा. इंदौर की नुपुर को ये एहसास था कि  हम बहुत नेक काम में हाथ बंटा रहे हैं . ...नुपुर ने बहुत बेहतर तरीके से अभियान को अंजाम दिया ...उसे बधाई

अभियान के बारे में और संस्करणों की कहानी और रिपोर्टर्स की पहल के बारे में भी जल्द ही............. 

क्षिप्रा
http://patrika.com/mag/Index.Html

http://mediaactiongrouppatrika.blogspot.com/

email: in.mediaactiongroup@gmail.com

Saturday, 28 May 2011


थैले में स्कूल, सड़क पर क्लास....

कक्षा पांच का अर्जुन डॉक्टर बनना चाहता है, लेकिन उसके गरीब पिता उसे जिस सरकारी स्कूल में पढ़ा रहा है उसकी बदहाली अर्जुन की आंख को धुंधला करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। उसके स्कूल में न तो बैठने की व्यवस्था है न पानी की और न शौचालय की। अर्जुन का स्कूल जयपुर में लोगों को हवाई अड्डे से लाने ले जाने वाली टोंक रोड के नजदीक चलता है। अम्बेडकर कॉलोनी के इस राजकीय प्राथमिक विद्यालय में करीब ४५ बच्चे और दो अध्यापिकाएं हैं। सुविधा से महरूम बच्चों के मज़दूर माता पिता बच्चों की सुरक्षा को लेकर हरदम चिन्तित रहते हैं और बच्चों को रोजाना स्कूल भेजने में कतराते भी हैं। अर्जुन और उसके साथियों के माता पिता उन्हें अच्छी पढ़ाई के लिए निजी स्कूलों में भेजना चाहते हैं लेकिन गरीब की फटी पोटली में फीस भरने को पैसे नहीं।

Thursday, 26 May 2011


2 - शिक्षा का अधिकार ----- तो संवर जाऊं मैं.....

मासूम दरख्वास्त  
क्या वाकई कलक्टर, क्लर्क और कल्लू चपरासी के बच्चे कभी सहपाठी होंगे? क्या हर एक बच्चा बराबरी के हक के साथ बढिय़ा शिक्षा का हक पा जाएगा? बच्चों की शिक्षा पर गरीब मां बाप को एक भी पैसा खर्च नहीं करना पड़ेगा? कब तक  वक्त की सख्ती में पलते बच्चों को तख्ती थामने का मौका मिल पाएगा?  देश के 70 फीसदी बच्चे आठवीं से पहले स्कूल छोड़ देते हैं और 80 फीसदी 11वीं से पहले। इसके अलावा देश के कुल 80 लाख और 14 साल के करीब 80 हजार बच्चे फिलहाल शिक्षा से वंचित हैं। राज्य में 6 से 14 साल के बच्चों की संख्या प्रदेश की कुल आबादी की करीब 20 फीसदी है। इनमें से डेढ़ लाख से भी ज्यादा को स्कूली शिक्षा नसीब नहीं और एक लाख से ज्यादा बच्चे बीच में स्कूल छोड़ देते हैं। ये हालात तब हैं जब सर्व शिक्षा अभियान में सरकार सौ फीसदी नामांकन का दावा कर रही है। पिछले साल अगस्त में 6 से 14 साल के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार कानून बन गया और इस अप्रेल से लागू हो गया। गरीब-अमीर और शहर-गांव का भेद पाटने और सामाजिक समानता की जड़ें मजबूत करने की सोच से सींचे इस कानून में कई प्रावधान हैं जिन पर चलकर बुनियादी शिक्षा व्यवस्था में थोड़े सुधार की आस जरूर बंधती है लेकिन संशय बरकरार है।
स्कूल प्रबन्धन में 75 सामुदायिक भागीदारी, निजी स्कूलों की जिम्मेदारी और गुणवत्ता के पैमानों का मुद्दा अहम है। सभी बच्चों को समान स्कूलों में समान शिक्षा कब तक मिल पाएगी, इसका कहीं कोई आकलन नहीं है। यह कानून मौजूदा हालात में क्या बेहतरी लाएगा ? जवाब ढूंढने निकले तो लगा शहरी और ग्रामीण बस्तियों के बीसियों स्कूल की टूटी जालियों से तकते बच्चे कह रहे हों - मैं वो मिट्टी हूं जो है चाक की गर्दिश में असीर- कैद, तू अगर हाथ लगा दे तो संवर जाऊंगा। काश हाकिमों को भी सुनाई दे जाए ये मासूम दरख्वास्त। 

                                                                                                                           
क्षिप्रा माथुर 

Tuesday, 24 May 2011


1. शिक्षा का अधिकार

पिछले साल अप्रेल में 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त शिक्षा का कानूनी हक मिला तो उम्मीद थी कि अब देश के उन 16 करोड़ बच्चों की किस्मत बदल जाएगी जो अपने हालात की वजह से स्कूल से छिटके रह गए। पत्रिका ने इस अधिकार के उस पहलू पर मुहिम शुरू की जिसे लेकर देश के तमाम बड़े निजी स्कूलों की लॉबी सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा चुकी थी और कोर्ट उनकी तमाम दलीलों को खारिज कर चुका था। मसला अनुदानित और गैर अनुदानित और किसी भी बोर्ड से मान्यता प्राप्त निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीटों पर गरीब व वंचित वर्ग के बच्चों के आरक्षण का। नियमों को कैसे दफन किया जाता है हम जानते हैं इसीलिए हमने संकल्प लिया - सबको पढ़ाएं, आगे बढ़ाएं।
जब जमीनी हकीकत खंगाली तो अन्दाजा हुआ न जरूरतमन्दों को अपने हक की जानकारी है न ही प्रशासन नियमों को कड़ाई से लागू करने के लिए राज़ी है। दूसरी ओर निजी स्कूलों की लॉबी का दबाव भी लगातार बना हुआ है।  निजी स्कूलों के तर्क हैं कि गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूल हैं ही फिर हम पर ये भार क्यों। मुफ्त में पढ़ाने का भार कैसे सहेंगे। गरीब बच्चा अभिजात्य परिवारों के बच्चों के समकक्ष कैसे आ पाएगा। कानून में साफ- साफ लिखा होने के बावजूद नियम कायदे ताक में रखे थे।
पत्रिका ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में निजी स्कूलों में गरीब बच्चों के प्रवेश की पड़ताल शुरू की। इस पड़ताल को तीन स्तरीय योजना बनाई-
  • निजी स्कूलों की हकीकत मालूम करना, जिम्मेदारी से बचने वालों की खैर खबर लेना और पोल खोलना 
  • सरकारी मशीनरी और स्कूल शिक्षा विभागों को नींद से जगाना  
  • गैर सरकारी नागरिक समूहों को साथ लेकर वंचित बच्चों की पहचान करना और उनके दाखिले के लिए आवेदन भरवाना
तीनों राज्यों के कुल साठ जि़लों में अपने रिपोर्टर्स की फौज लगाकर निजी स्कूलों की खबर लेनी शुरू की तो स्कूलों में भी खलबली मच गई और जिला प्रशासन ने भी कागज खंगालने शुरू किए। राजस्थान में 31 मार्च को शिक्षा विभाग के आदेश के बावजूद स्कूलों तक कागज नहीं पहुचे तो जबानी तौर पर स्कूलों को अगले साल तक आदेश की पालना की मोहलत देने की तैयारी भी सामने आई। बड़े स्कूलों ने अपने बचाव में हर सम्भव तर्क दिए तो छोटे स्कूलों ने नियम का हवाला देने पर प्रवेश देने की प्रक्रिया शुरू की। राजस्थान में ढाई लाख की सालाना आय को गरीब व वंचित वर्ग का पैमाना बनाकर निजी स्कूलों के लिए ढाल खड़ी करने की चाल बखूबी चली गई तो मध्यप्रदेश में प्रशासन ने सक्रियता बरतते हुए निजी स्कूलों पर सख्ती बरतने में हमारा साथ दिया।
मुहिम में हमने हर जिले के पांच बड़े निजी स्कूलों पर नज़र रखी, साथ ही सामाजिक संगठनों के जरिए उस स्कूल के इर्द- गिर्द बसे गरीब बच्चों की पहचान करवाई। उनकी समझाइश की। उनके हक के बारे में उन्हें बताया। उन्हें लेकर निजी स्कूलों के पास गए। स्कूलों ने आनाकानी की तो उनकी खबर ली। स्कूलों ने सरकारी गाइडलाइन नहीं मिलने, बच्चे के पास पूरे दस्तावेज न होने, प्रमाण पत्रों को अटेस्ट करवाकर लाने, सीबीएसई बोर्ड होने, जिला शिक्षा अधिकारी से लिखित में लाने के बाद प्रवेश पाने आदि अडंग़े लगाकर बला टालने की भरपूर कवायद की। तो हमने हेल्पलाइन के माध्यम से उन्हें भी नियम कायदों की जानकारी दी। निर्देश की कॉपी मुहैया करवाई। कहीं स्कूलों में प्रवेश प्रक्रिया पूरी होने का बहाना आया तो हमने समस्या जिला शिक्षा अधिकारी तक पहुंचाई । वहां इन स्कूलों को 25 फीसदी गरीब बच्चों को प्रवेश नहीं देने वाले स्कूलों को इतनी ही सीटें बढ़ाकर प्रवेश देने का आदेश हुआ। इस मुहिम का सबसे सुखद पहलू ये रहा कि इस मुहिम में सामाजिक संगठनों ने हमारा दिल से साथ दिया। गरीब बच्चों को शिक्षा के दर तक पहुंचाने में उन्होंने आहूति दी। और इस बूते अभी तक सैकड़ों बच्चे निजी स्कूलों में अपने हक पाने की कतार में लगे हैं। प्रवेश प्रक्रिया जारी है और हमारी मुहिम भी।
जिनके शिक्षा के अधिकार की बात है वे तो अपने हर अधिकार से अनजान हैं जिम्मेदारी समाज की, हर मजबूत हाथ की है जो एक-एक नन्ही उंगली थामने का बीड़ा उठा ले। सिर्फ मीडिया की नहीं अन्य करोबारी समूह, प्रोफेशनल्स और समाजसेवियों के लिए मौका है ज्ञान के लिए दान का, योगदान का।
                                                                                                                                                क्षिप्रा माथुर