Thursday, 26 May 2011

2 - शिक्षा का अधिकार ----- तो संवर जाऊं मैं.....

मासूम दरख्वास्त  
क्या वाकई कलक्टर, क्लर्क और कल्लू चपरासी के बच्चे कभी सहपाठी होंगे? क्या हर एक बच्चा बराबरी के हक के साथ बढिय़ा शिक्षा का हक पा जाएगा? बच्चों की शिक्षा पर गरीब मां बाप को एक भी पैसा खर्च नहीं करना पड़ेगा? कब तक  वक्त की सख्ती में पलते बच्चों को तख्ती थामने का मौका मिल पाएगा?  देश के 70 फीसदी बच्चे आठवीं से पहले स्कूल छोड़ देते हैं और 80 फीसदी 11वीं से पहले। इसके अलावा देश के कुल 80 लाख और 14 साल के करीब 80 हजार बच्चे फिलहाल शिक्षा से वंचित हैं। राज्य में 6 से 14 साल के बच्चों की संख्या प्रदेश की कुल आबादी की करीब 20 फीसदी है। इनमें से डेढ़ लाख से भी ज्यादा को स्कूली शिक्षा नसीब नहीं और एक लाख से ज्यादा बच्चे बीच में स्कूल छोड़ देते हैं। ये हालात तब हैं जब सर्व शिक्षा अभियान में सरकार सौ फीसदी नामांकन का दावा कर रही है। पिछले साल अगस्त में 6 से 14 साल के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार कानून बन गया और इस अप्रेल से लागू हो गया। गरीब-अमीर और शहर-गांव का भेद पाटने और सामाजिक समानता की जड़ें मजबूत करने की सोच से सींचे इस कानून में कई प्रावधान हैं जिन पर चलकर बुनियादी शिक्षा व्यवस्था में थोड़े सुधार की आस जरूर बंधती है लेकिन संशय बरकरार है।
स्कूल प्रबन्धन में 75 सामुदायिक भागीदारी, निजी स्कूलों की जिम्मेदारी और गुणवत्ता के पैमानों का मुद्दा अहम है। सभी बच्चों को समान स्कूलों में समान शिक्षा कब तक मिल पाएगी, इसका कहीं कोई आकलन नहीं है। यह कानून मौजूदा हालात में क्या बेहतरी लाएगा ? जवाब ढूंढने निकले तो लगा शहरी और ग्रामीण बस्तियों के बीसियों स्कूल की टूटी जालियों से तकते बच्चे कह रहे हों - मैं वो मिट्टी हूं जो है चाक की गर्दिश में असीर- कैद, तू अगर हाथ लगा दे तो संवर जाऊंगा। काश हाकिमों को भी सुनाई दे जाए ये मासूम दरख्वास्त। 


                                                                                                                           
क्षिप्रा माथुर 


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